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Friday, March 16, 2018

धर्म

वात्स्यायन के अनुसार धर्म

वात्स्यायन ने धर्म और अधर्म की तुलना करके धर्म को स्पष्ट किया है। वात्स्यायन मानते हैं कि मानव के लिए धर्म मनसा, वाचा, कर्मणा होता है। यह केवल क्रिया या कर्मों से सम्बन्धित नहीं है बल्कि धर्म चिन्तन और वाणी से भी संबंधित है।

शरीर का अधर्म : हिंसा, अस्तेय, प्रतिसिद्ध मैथुन
शरीर का धर्म : दान, परित्राण, परिचरण (दूसरों की सेवा करना)
बोले और लिखे गये शब्दों द्वारा अधर्म : मिथ्या, परुष, सूचना, असम्बन्ध
बोले और लिखे गये शब्दों द्वारा धर्म : सत्व, हितवचन, प्रियवचन, स्वाध्याय (self study)
मन का अधर्म : परद्रोह, परद्रव्याभिप्सा (दूसरे का द्रव्य पा लेने की इच्छ), नास्तिक्य (denial of the existence of morals and religiosity)
मन का धर्म : दया, स्पृहा (disinterestedness), और श्रद्धा

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