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Monday, June 14, 2021

Explain the concept of Discipline in the context of knowledge (ज्ञान के संदर्भ में 'अनुशासन' की अवधारणा को स्पष्ट करें।)

ज्ञान के संदर्भ में 'अनुशासन' की अवधारणा को स्पष्ट करें।
(Explain the concept of Discipline in the context of knowledge.)


भारतीय परम्परा में बहुधा 'बोध' और 'ज्ञान' का प्रयोग पर्यायवाची क्षेत्र के रूप में किया जाता है। 'ज्ञान' के सम्प्रत्यय को समझने के लिए इसके तीन संघटक तत्वों को जानना आवश्यक है। ज्ञान के ये तीन तत्व हैं- 'ज्ञाता' और 'ज्ञान का साधन' (Means of Knowledge)। ये तीनों तत्त्व किसी भी ज्ञान के लिए अपरिहार्य हैं। इसे एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है— 'कलम' के ज्ञान हेतु तीन बातें अपरिहार्य हैं- (क) वह वस्तु अर्थात् 'कलम' जिसका ज्ञान हो रहा है। इसे 'ज्ञेय' कहते हैं। (ख) व्यक्ति अर्थात विषय (कलम) को जानने वाला तथा (ग) ज्ञान का साधन यथा इन्द्रियानुभव आदि जिससे 'कलम' को जाना जा रहा है। इस प्रकार ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान के साधन (प्रमाण) के सम्मिलित रूप को 'ज्ञान' कहा जाता है।

ज्ञान को प्रायः अंग्रेजी में 'नॉलेज (Knowledge) शब्द से व्यक्त किया जाता है। 'नॉलेज' पद की किस प्रकार की विवेचना पाश्चात्य मत में मिलती है तथा भारतीय मत में जो 'ज्ञान' की विवेचना मिलती है उसके आधारभूत भेद हैं। 'नॉलेज' और 'ज्ञान' के दार्शनिक विवेचन में सर्वाधिक प्रमुख भेद यही है कि 'नॉलेज' सिर्फ सत्य है, जबकि 'ज्ञान' को 'सत्य' व 'असत्य' दोनों रूपों में पाया जाना सम्भव है।

काण्ट के अनुसार मानव मन में तीन प्रकार की शक्तियाँ हैं- ज्ञानशक्ति, नैतिक शक्ति और निर्णय शक्ति ज्ञान शक्ति से ही ज्ञान होता है। ज्ञान-शक्ति दो प्रकार की होती हैं संवेदन शक्ति (Sensibility) और बुद्धि (Reason)। संवेदनशक्ति बाहर के संवेदनों को ग्रहण करती हैं, पर उस समय यह बिल्कुल निष्क्रिय नहीं होती। परन्तु उन संवेदनों को देश (Space) और काल (Time) के साँचे में ढाल देती है जो उसके जन्मजात आकार हैं। जिस प्रकार बाहरी पदार्थों को नीचे चश्मे के द्वारा देखने पर वे नीले प्रतीत होते हैं, वैसे ही बाह्य संवेदनों की संवेदन शक्ति और काल रूपी चश्मे के माध्यम से प्राप्त होती है। अर्थात् जब भी किसी पदार्थ का अनुभव होता है तो 'कब' और 'कहाँ' उसमें जुड़ा रहता है। अतः संवदेन बिना बोधों के अन्धा है और शुद्ध बोध संवेदनों के बिना खोखला हैं।


अनुशासनात्मक ज्ञान सम्प्रत्यय व वैकल्पिक सम्प्रत्यय
(Disciplinary Knowledge: Concepts and Alternative Concepts)

मानवीय ज्ञान के अध्ययन के एक स्वतंत्र क्षेत्र को अनुशासन (विषय) की संज्ञा दी जाती है। आदिकाल से मनुष्य अपने अनुभवों को संचित करता रहा है और मानवीय ज्ञान में वृद्धि होती रहती है। मानवीय ज्ञान का स्रोत सामाजिक तथा व्यावसायिक क्रियाओं की समस्याएँ रही हैं। मानवीय ज्ञान का विभाजन सुगमता की दृष्टि से 'अनुशासनों' के रूप में किया गया. है। प्रत्येक स्वतंत्र अनुशासन किसी सामाजिक अनुशासनों' के रूप में किया गया है। प्रत्येक स्वतंत्र अनुशासन किसी सामाजिक अथवा व्यावसायिक क्रिया से सम्बन्धित होता है। उदाहरण के लिए कृषि विज्ञान का सम्बन्ध 'खेती' से वाणिज्य शास्त्र का सम्बन्ध 'व्यापार' से मनोविज्ञान का सम्बन्ध 'व्यवहार' से, इसी प्रकार शिक्षा का सम्बन्ध 'शिक्षण' से है। कभी-कभी ज्ञान की दो शाखाओं के मिलने से एक स्वतंत्र अध्ययन के क्षेत्र का विकास हो जाता है। इस प्रकार के उदाहरण सभी अनुशासनों से मिलते हैं। जैसे-सामाजिक मनोविज्ञान, आर्थिक भूगोल, जीव रसायनशास्त्र, इसी प्रकार शिक्षा के अन्तर्गत शैक्षिक मनोविज्ञान, शैक्षिक समाजशास्त्र शिक्षा दर्शन आदि आते हैं। इस प्रकार के नवीन अध्ययन क्षेत्र का महत्व जनजीवन की उपयोगिता की दृष्टि से स्पष्ट हो जाता है, तब उसे एक 'नये अनुशासन' के रूप में मान्यता दी जाती है। जब दो अनुशासनों के मिलने से तीसरे अनुशासन का विकास होता है, तब उस समय वह ज्ञान राशि दोनों ही अनुशासन की पाठ्य-वस्तु मानी जाती है।

शिक्षा को एक सामाजिक प्रक्रिया माना जाता है, जिसके सैद्धान्तिक व व्यावहारिक दो पक्ष हैं। सैद्धान्तिक पक्ष का सम्बन्ध दर्शन तथा समाजशास्त्र से है और व्यावहारिक पक्ष का सम्बन्ध मनोविज्ञान से है। अतः शिक्षा का एक अनुशासन के रूप में विकास, दर्शन, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र तथा मनोविज्ञान के योगदान से हुआ हैं।

है जिससे नई पीढ़ी उस ज्ञान से लाभ उठा सके। शिक्षाशास्त्र के ज्ञान के प्रसार एवं संचालन के लिए महाविद्यालयों में शिक्षा विभाग तथा शिक्षा संकाय की व्यवस्था की जाती है। इसके अन्तर्गत अन्य विषयों की भाँति बी.ए., एम.ए.,बी.एड. तथा एम.एड. की उपाधियाँ प्रदान की जाती हैं। मानवीय ज्ञान की तीसरी विशेषता ज्ञान का विकास करना तथा उसमें वृद्धि करना है। यह कार्य शोध प्रक्रिया के द्वारा पूर्ण होता है। शिक्षा के क्षेत्र में भी इनके प्रसार एवं विकास के हेतु एक राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् (एन.सी.ई.आर. टी.) का निर्माण किया गया है। इसका प्रमुख कार्य शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों का विकास करना तथा ज्ञान का प्रसार करना है। जो छात्र शिक्षा अनुशासन के अन्तर्गत शोधकार्य करते हैं उन्हें अन्य अनुशासनों की भाँति विश्वविद्यालयों से शोध के लिए उपाधियाँ दी जाती हैं। इस विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा मानव का एक स्वतंत्र अध्ययन का क्षेत्र है और जिससे अन्य अनुशासनों की भाँति उच्च स्तर प्राप्त हो चुका हो। अतएव शिक्षा को अब केवल एक प्रक्रिया तथा प्रशिक्षण के रूप में ही नहीं अपितु एक स्वतंत्र अनुशासन के रूप में मान्यता दी जाती है। परन्तु कुछ लोग शिक्षा को एक अनुशासन की तरह मान्यता न देने के पीछे यह तर्क भी देते हैं कि शिक्षा के अन्तर्गत मनोविज्ञान, दर्शन, समाजशास्त्र आदि विषयों का अध्ययन किया जाता है तो फिर शिक्षा का अपना क्या है? अतः हम इसे एक स्वतंत्र अनुशासन के रूप में कैसे मान्यता दें? जो व्यक्ति इसे स्वतंत्र अनुशासन मानते हैं, उनका तर्क है कि शिक्षा के अन्तर्गत कई विषयों के अध्ययन 'अन्त विषयक आयाम' (Inter disciplinary Approach) का परिणाम है। इस आयाम से शिक्षा की पाठ्य-वस्तु ही प्रभावित नहीं होती अपितु अन्य अनुशासनों में भी इसका प्रभाव है। आज की जटिल होती समस्याओं के कारण इन समस्याओं के अध्ययन एवं समाधान से जो नवीन ज्ञान मिलता है वह सभी अनुशासनों की पाठ्य-वस्तु मानी जाती है क्योंकि विषयों की पारस्परिक अन्तः प्रक्रिया के फलस्वरूप सभी अनुशासनों की पाठ्य-वस्तु में वृद्धि होती है और उनको दो या तीन अनुशासनों के नाम से सम्बोन्धित किया जाता है। जैसे सामाजिक मनोविज्ञान, शैक्षिक मनोविज्ञान तथा शैक्षिक सामाजिक मनोविज्ञान।

अध्ययन विषयों की अन्तः प्रक्रिया द्वारा ही छात्रों को विभिन्न व्यवसायों के योग्य भी बनाया जा सकता है ताकि छात्र व्यवसाय में कौशल प्राप्त करके अपनी जीविका उपार्जन कर सकें। एक लुहार का पुत्र शिक्षा ग्रहण करने के बाद अपने पैतृक व्यवसाय में जाना पसन्द नहीं करता, परन्तु वह तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद एक अभियन्ता बनने में गौरव महसूस करता है परिणामतः व्यावसायिक संस्थानों की स्थापना की गई। इन उदाहरणों में अनुशासनों की अन्तः प्रक्रिया स्पष्ट हो जाती है।

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