थकान !
{सुमित कर्ण}
मेट्रो में खड़े रहने से थकान नहीं होती। ना ही थकान महसूस होती है पूरा दिन व्यस्त गुजरने से। ये सरकारी और प्राइवेट का अंतर नहीं देखती और ना ही देखती है कि अभी पढ़ रहे हो या बेरोजगार हो।
थकान एक गुंजाइश है जो पूरे दिन जोर लगाने के बाद भी कहीं कुछ कम रह जाने भर में अपनी जगह बना लेती है। थकान एक सूचना है जो बतलाती है कि हम जो भी कर रहे हैं या तो वो गलत है या उसमें हमने कोई कसर बाकी छोड़ दी है। थकान एक खिड़की है, जो पूरे घर को बंद कर देने के बाद भी कहीं थोड़ी सी खुली रह जाती है और करती रहती है प्रहार, अंदर तक लगातार।
थकान के दूसरे पटल पर सुकून है। जो भटकता है हम तक आने के लिए और हम उसको पाने के लिए। थकान की हार में सुकून की जीत है, हमारी जीत है, लेकिन ये थकान कभी मानसिक तो कभी शारीरिक रूप लेकर हमें भेदती रहती है। सुकून और हमारे बीच की एक ऐसी लकीर बन जाती है जिसमें हमें पता तो होता है कि सुकून क्या है लेकिन हम उसे महसूस नहीं कर पाते और वो हमारे भीतर नहीं उतर पाता।
थकान चाहें शारीरिक हो या मानसिक उसका प्रहार हमारी चेतना पर ही होता है। वो प्रहार किसी काम के लिए रत्ती भर की इच्छा नहीं छोड़ता। बेहद बारीक और बेहद नृशंस! वही एक आखिरी प्रयास जिसके करने पर सुकून को पा लिया जा सकता है, उसे ही भेद डालता है।
"शतरंज की बिसात पर देखें तो थकान रानी है और तनाव राजा। तनाव की सीमाएं हैं लेकिन थकान की नहीं। तनाव को बनाए रखने के लिए ही थकान पूरा जोर लगाती है।"
बस हर दिन का लक्ष्य सिर्फ उस थकान को मान कर चलो और उड़ा डालो। जितना दिमाग शतरंज में लगता है न, यकीन मानो उससे ज्यादा नहीं लगेगा।
उस जीत के बाद पैरों में दर्द तो हो सकता है पर सिर बेहद हल्का महसूस होगा। आँखें झपकी खा सकती हैं लेकिन चेहरे पर मुस्कान बनी रहेगी। मेट्रो में सीट नहीं मिलेगी लेकिन जान बनी रहेगी। आसपास की दुनिया चिकचिक भी कर रही होगी तो कानों में मिठास ही घोलेगी।
बस! यही सुकून है। यही परम आनन्द है। यही मोक्ष है।
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